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ग्रामसभा के सशक्त होने से बदल रही है असुर आदिवासी समुदाय की स्थिति

  • Jacinta Kerketta
  • Feb 24, 2023
  • 6 min read

Updated: Mar 22, 2023


आदिवासी इलाकों में ग्रामसभा के माध्यम से सरकारी योजनाएं लाने के लिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया जा रहा है, जिससे गांवों में स्थितियां बदल रही हैं. इसमें स्त्रियों की मजबूत भागीदारी भी नजर आती है.


झारखंड के एक गांव में डुगडुगी बज रही है. लोग धीरे-धीरे निकल रहे हैं और पेड़ के नीचे जुट रहे हैं. स्त्रियां काफ़ी संख्या में चली आ रही हैं. डुगडुगी की आवाज सुनकर बुजुर्ग भी पेड़ के नीचे जुट रहे हैं. यह जुटान ग्राम सभा की है. लोग गोल घेरे बनाकर पेड़ की छांव में बैठ गए हैं. स्त्रियां छोटे बच्चों के साथ बैठी हैं. इसके साथ ही वे खजूर के पत्तों की चटाई बनाने के लिए पत्तों को तेजी से आपस में गूंथ रही हैं. कुछ स्त्रियां चौड़े पत्तों से गुंगू बना रही हैं. यह गर्मी के दिनों में सिर ढंकने के काम आता है, साथ ही बरसात में लोग इसे ओढ़कर खेतों में काम भी करते हैं. गुंगू बनाते वक्त उनके हाथ सावधानी से पत्ते सिल रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वे ग्राम सभा में हो रहे संवाद को भी ध्यान से सुन रही हैं.



गांधी जी अपनी बैठकों में चरखा चलाते रहते थे और दूसरों को सुनते भी रहते थे. वे जिस जीवनमूल्य का अपने जीवन में अभ्यास किया करते थे, उसे आदिवासी जीवन शैली में लोगों को सहज तरीके से जीते हुए देखा जा सकता है.

यह झारखंड के गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड में स्थित लुपुंगपाट गांव है जो पहाड़ों के ऊपर पाट में बसा हुआ है| यहां विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समुदाय ‘असुर’ रहते हैं. गांव में क़रीब 90 परिवार हैं. आज असुर समुदाय को विलुप्त होने की कगार पर खड़े समुदायों में गिना जाता है. इन आदिवासी समुदायों पर झारखंड सरकार की विशेष नज़र है. गांव की ग्रामसभा के सशक्त होने से असुर आदिम समुदाय किस तरह सशक्त हुआ है और गांव की दिशा- दशा किस तरह बदल रही है, लुपुंगपाट गांव इसका एक उदाहरण है.


ग्रामसभा के सशक्त होने से गांव में आया है बदलाव


लुपुंगपाट गांव में बहुत पहले ग्रामसभा की बैठक नहीं होती थी. लेकिन इधर कुछ सालों से गांव में लोग ग्राम सभा की बैठक कर रहे हैं. ग्रामसभा, आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था का ही हिस्सा है. 1996 में पेसा एक्ट के द्वारा इसे सशक्त किया गया है. ग्राम सभा की सहमति और अनुमति के बिना गांव में कोई भी सरकारी योजना शुरू नहीं हो सकती, इसलिए ग्राम सभा की भूमिका बढ़ गई है. लेकिन इसका दुष्परिणाम यह भी है कि जल, जंगल, ज़मीन पर कब्जा करने के लिए कंपनियां फर्जी ग्राम सभा भी तैयार करती हैं. लेकिन लुपुंगपाट की ग्राम सभा के सशक्त होने से गांव में बदलाव नजर आ रहा है. इनमें गांव की स्त्रियां काफ़ी संख्या में हिस्सा लेती हैं. वे मुखर और सशक्त हुई हैं और निर्णय प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाती हैं.


गांव के युवा संचित असुर जिन्होंने गुमला शहर में रहकर पढ़ाई की है और वे फुटबॉल के खिलाड़ी भी रहे हैं, कहते हैं कि “शुरू में गांव के पुरुष समझते थे कि स्त्रियां सिर्फ खाना बनाने और पानी भरने के काम के लिए होती हैं. इसलिए वे पारंपरिक बैठकों में हिस्सा नहीं लेती थीं. उनमें सिर्फ पुरुष ही बैठते थे और लड़ाई-झगड़े के मामले ही सुलझाते थे. लिखित रूप से कोई काम नहीं होता था. पंच बोलकर ही सारा निर्णय देते थे. स्त्रियां किसी भी नए व्यक्ति को देखते ही छिप जाती थीं. लेकिन जब से ग्राम सभा में स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर बैठने लगे, निर्णय प्रक्रिया में दोनों अपनी भूमिका निभाने लगे हैं, तब से गांव में सकारात्मक बदलाव भी नजर आ रहा है”.


निर्मला असुर बताती हैं कि“गांव में ग्राम सभा की वजह से महिलाएं घरों से निकल बैठकों में जाने लगी है़ं. उनका आत्मवश्विास बढ़ा है. उन्होंने गांव के आस पास बॉक्साइड खनन के लिए आए लोगों को भी भगाया है़. इसके लिए गांव की स्त्रियों ने मिलकर संघर्ष किया था”.


सरिता असुर हॉकी की खिलाड़ी रही हैं. देश के कई हिस्सों में उन्होंने हॉकी प्रतियोगिता में भाग लिया है. वे मेजर ध्यानचंद प्रतियोगिता में भी खेल चुकी हैं. विवाह के बाद अब लुपुंगपाट गांव में रहती हैं. वे कहती हैं कि लुपुंगपाट में पानी की काफी कमी थी. नहाने, पीने, बर्तन धोने के लिए भी पानी झरनों से ढोकर लाना पड़ता था. जब ग्राम सभा में स्त्रियां बैठने लगीं तो उन्होंने पानी की समस्या का मुद्दा उठाया़ फिर गांव में जलमीनार बनाने के लिए पंचायत कार्यकारिणी समिति को आवेदन दिया गया. जब प्रखंड स्तर तक आवेदन पहुँचा, तब गांव में जलमीनार बन गया है. आज गांव में दो जलमीनार हैं”.


फिलोमीना असुर बताती हैं कि“पहले राशन के लिए एक घंटे की दूर पर पहाड़ के नीचे स्थित कटकाही गांव जाना पड़ता था. बरसात के मौसम में चावल लाने के समय खुद से ज्यादा चावल को बचाने की जद्दोजहद रहती थी. ग्राम सभा में बैठक होने पर लोगों की सर्वसहमति से नया लुपुंगपाट टोली में राशन की सुविधा लायी गयी. यहां गांव का ही एक आदमी राशन वितरण का काम करता है. यह एक बड़ी सुविधा हो गई है”.


गांव के बेनेडक्टि असुर कहते हैं कि“साल 1908 में गांव में हैजा फैला था. तब कुछ लोगों ने अलग होकर नया टोला बनाया. यही नया लुपुंगपाट टोला है. पहले लोगों को चैनपुर प्रखंड के कटकाही गांव जाकर राशन लेना पड़ता था. वहां राशन देने में बईमानी भी की जाती थी. तब लोगों ने ग्रामसभा के माध्यम से अपने गांव क्षेत्र में राशन वितरण की सुविधा की मांग की. ग्राम सभा में लोगों के जुटने की वजह से कोई भी फैसला लेना आसान होता है”.




ग्राम सभा में लोगों ने आठ समितियां बनाई हैं. इसमें ग्राम विकास समिति, सार्वजनिक संपदा समिति, कृषि समिति, स्वास्थ्य समिति, ग्राम रक्षा समिति, आधारभूत संरचना समिति, शिक्षा व सामाजिक न्याय समिति और निगरानी समिति बनायी गयी हैं. इन समितियों के माध्यम से गांव के लोग को ही अलग अलग जिम्मेदारियाँ दी गई है|


शिक्षा और सामाजिक न्याय समिति के माध्यम से गांव के बच्चों की शिक्षा को लेकर लोगों ने चिंता व्यक्त की, क्योंकि कोरोना के समय स्कूल बंद होने पर बच्चों की पढ़ाई बाधित हो गई थी. ऐसे में ग्राम सभा में लोगों ने रात्रि पाठशाला शुरू करने का निर्णय लिया. गांव के ही एक शिक्षित व्यक्ति को इसकी जिम्मेदारियाँ सौंपी गई. इस रात्रि पाठशाला में पढ़ने के लिए गांव के करीब पचास बच्चे जुटने लगे. शिक्षक के रूप में पढ़ाने वाले जॉन असुर कहते हैं कि “गांव के लोगों ने मिलकर ग्राम सभा में यह निर्णय लिया है इसलिए वे रोजाना शाम को बच्चों को समय देते हैं. इसके लिए गांव के लोग प्रति बच्चा एक दिन का एक-एक रुपया के हिसाब से भुगतान करते हैं”.


इस गांव के लोगों ने ग्राम कोष का भी निर्माण किया है। इसमें लोग चावल या फिर रूपये जमा करते हैं। इसका उपयोग गांव के लोग अकास्मिक जरूरतों, गांव की सार्वजनिक आवश्कयता या व्यक्तिगत परेशानियों के समय भी कर्ज लेकर करते हैं।




गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड के प्रखंड विकास पदाधिकारी डॉ. शिशिर कुमार सिंह कहते हैं कि “ग्रामसभा के माध्यम से ही सरकार की विकास योजनाएं गांवों तक पहुंचती हैं. गांव सजग हो रहे हैं. ग्रामसभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. पुरुष से अधिक सक्रिय महिलाएं हैं. गांवो में लोगों को ठगने के लिए आनेवालों पर कानूनी कार्यवाई भी होती है. अब तक करीब 118 ऐसे मामले दर्ज किए गए हैं. ग्रामसभा की सहमति के बिना कोई काम करना एक तरह से अपराध है”.




क्या है असुरों का इतिहास


झारखंड में असुर आदिवासी हजारों साल से निवास कर रहे हैं. ये गुमला, लातेहार, लोहरदगा, पलामू जिलों में मौजूद हैं. मुंडा आदिवासियों की सृष्टि कथा में असुरों का चर्चा है. इनकी भाषा भी प्रोटो एस्ट्रेलाइड समूह की भाषा है इसलिए इनके गांवों में लोग मुंडारी भाषा भी आसानी से समझते हैं. पुरातत्व और इतिहासकार बनर्जी और शास्त्री (1926) के अनुसार पुर्व वैदिक काल से वैदिक काल तक असुर अत्यंत शक्तिशाली समुदाय रहे हैं. उनके अनुसार असुर सिंधुसभ्यता के प्रतिष्ठापक हैं. मजूमदार के अनुसार उनका ही संघर्ष आर्यों के साथ हुआ. नेतृत्वविज्ञानि एस.सी.राॅय ने झारखंड की पुरानी रांची में सौ जगहों पर उनके अवशेष के फैलाव का जिक्र भी किया है. असुर दुनिया के लोहा गलाने के काम से जुड़े दुर्लभ धातुवज्ञिानी आदिवासी समुदायों में माने जाते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में इनकी जनसंख्या घटकर अब मात्र 7783 ही रह गई है.



लुपुंगपाट गांव के असुर बुजुर्ग, गांव का इतिहास बताते हैं. वे कहते हैं कि “बहुत पहले उनके पुरखे आज के छत्तीसगढ़ इलाके के दंड कारण्य से रोहतासगढ़ की ओर गये थे़. वहां से वे छोटानागपुर जो अब झारखंड है, की ओर आए. झारखंड आकर वे गुमला जिले के कटकाही-छुछूवानी गांव क्षेत्र में बस गए. एक दिन बहुत भोरे पुरखों ने दूर से रहड़ के खेत में किसी जानवर को चरते हुए देखा. उन्होंने समझा कि खेत में कोई हिरण होगा इसलिए तीर चला दी. वह जानवर वहीं मर गया. जब वे पास गए तो देखा कि वह कोई हिरण नहीं, बल्कि एक सफेद घोड़ा था और वह राजपरिवार का घोड़ा था. वे डर गए और पूरा गांव भागकर पहाड़ों के ऊपर पाट या पठार वाले क्षेत्र में आ गया. पाट क्षेत्र में आने के बाद वे लूपुंग नामक एक पेड़ के नीचे कई दिनों तक रहे. फिर मिट्टी के घर बनाए. इसके बाद झाड़ियों को साफ़ कर खेत बनाए. इस तरह गांव बस गया और उन्होंने उस लुपुंग नाम के पेड़ के नाम पर गांव का नाम लुपुंगपाट रखा. लुपुंगपाट की तरह करीब सौ से अधिक गांव गुमला और लातेहार जिले के अंतर्गत पड़ने वाले नेतरहाट पहाड़ियों के ऊपर पाट क्षेत्र में बसे हुए हैं.




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