आदिवासी समाज का विकास कैसे हो?
- बीजू टोप्पो
- Jan 29, 2021
- 7 min read
मेरे मन में एक सवाल बार बार आता है कि क्या हमारे आदिवासी समाज का विकास हो पा रहा है? यदि हाँ तो आर्थिक,सामाजिक चेतना भाषा साहित्य एवं संस्कृति के सवाल पर क्या सर्वांगीण विकास हो पा रहा है? यदि नहीं तो फिर साक्षर होकर शिक्षित क्यों नहीं हो पा रहे हैं? अगर गाड़ी और मकान बनाना ही विकास का मापदंड है, तो हम कहीं न कहीं पिछड़ रहे हैं. या तो हमारा विचार ओछी है. हम व्यक्तिवादी होकर एक बेहतर समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं.
अभी के इस दौर में हमारा आदिवासी समाज धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से पूरा बिखर गया है. लोग धर्म के नाम पर, खाने पीने के नाम पर और ओढ़ने - पहनने के नाम पर, आरक्षण के नाम पर, राजनीतिक पार्टी के नाम पर टूट कर बिखर गया है. हमारी जो सामाजिक समरसता थी, हमारा समाज स्वावलंबी था, वो मृतप्राय हो चुकी है. हमारे बीच की सामूहिकता जो हजारों साल से मजबूत हुआ करती थी, सब टूट चूका है. गांवों में मदैत व्यवस्था, पड़हा व्यवस्था, स्वशासन व्यवस्था जिससे गांव समाज संचालित होता था, और इन्हीं सारी विधि व्यवस्था को देख कर ही अंग्रेजों ने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, संतालपरगना टेनेंसी एक्ट एवं विलकिंसन रूल्स बनाया था. पूर्वजों ने जल - जंगल - जमीन बचाने के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ी ताकि उस धरोहर को भावी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सके. हमारे झारखण्ड राज्य के १३ जिले जो पांचवीं अनुसूची इलाके में आते हैं, जिसे झारखण्ड के मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा और संविधान के निर्माता डा. भीम राव आंबेडकर ने गहन चर्चा के बाद इसे संविधान के अनुसूची में डाला, इस अनुसूची में आदिवासियों की सामाजिक सांस्कृतिक, भाषाई एवं आर्थिक रूप से सुरक्षा प्रदान करना है, जिसके कस्टोडीयन राजपाल होते हैं. लेकिन अभी के राजनेता इसकी महत्ता कहाँ समझते हैं. खासकर, राजपाल ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका कभी नहीं निभाया है. हम जानते हैं कि जल - जंगल - जमीन पर ही हमारी आजीविका टिकी हुई है. इसके बगैर हमारा समाज जिन्दा नहीं रह सकता है. हम पढ़े - लिखे लोग इन सारी चीजों को नहीं बचा सकते तो कम पढ़े और भोले - भाले गांव वालों से क्या उम्मीद किया जाए. लेकिन हाँ, अगर जरुरत आन पड़ी तो मीलों दूर शहर में आकर भी अपना सीना तानकर प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने में पीछे नहीं रहते है. हम शहरी लोग जानते हुए भी अनजान बनकर घरों में दुबके रहते हैं. घर का चौखट पार नहीं करने का कसम खा लेते हैं. ड्यूटी, पेशा वाले उलटे गालियाँ देते फिरते हैं कि कहाँ से आकर ये गवांर लोग रोड जाम किये हुए हैं. जो आदिवासी ऊँचे अधिकारी बन बैठे हैं, वो तो सीधे आतंकवादी और नक्सलवादी कहकर लाठी चार्ज कर जेल भेजवाने का प्रबंध करते हैं. कुछ दिनों से इन्हें तो “देशद्रोह” ही कहा जाने लगा है. मेरा मानना है कि इन सारी परिस्थितियों से हमारी युवा पीढ़ी कितने परिचित हैं? अगर नहीं हैं तो इसके लिए जिम्मेवार कौन हैं? घर के गार्जियन, आस - पड़ोस के लोग, समाज, या पूरी शिक्षा प्रणाली, किसे दोषीगार मानें?

वर्तमान समय हाई टेक का जमाना है. इस ज़माने में हर हाथ को काम मिल गया है. सभी के हाथ इंगेज हो गए हैं. क्या हम सच में स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर स्मार्ट बन गए हैं? क्या हम इसके जरिये देश दुनिया के चीजों से वाकिफ हैं? क्या हम 4 जी के माध्यम से बेहतर पढाई कर पा रहे हैं अथवा हम सिर्फ जियो डिजिटल लाइफ वाली जिन्दगी बिता रहे हैं. युवा वर्ग को इसे बेहतर टूल्स के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए. सिर्फ भाषा, संस्कृति की बात नहीं है. हमारा इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र आदि सभी के गूढ़ बातों को उच्च स्तर पर शोध करके समाज में नव क्रांति लाने की जरुरत है. इन सारे चीजों को युवा पीढ़ी ही कर सकते हैं. एनरोइड फोन चमकाने भर से काम नहीं चलने वाला है. ऐसा न हो जाए कि फेस बुक में लाइक बटन दबाते - दबाते जीवन भर नालायक बन जाएँ. जीवन में इन सब से ऊपर उठकर काम करना है.
एक समय था, जब यह कहा जा रहा था कि आदिवासियों को कथित मुख्यधारा में आना चाहिए. इस सवाल पर दिवंगत डा. रामदयाल मुंडा जी कहते थे कि आदिवासियों को इस कथित मेन स्ट्रीम में क्यों शामिल होना चाहिए? उनका मानना था कि सभी स्ट्रीम ही मेन स्ट्रीम हैं. आदिवासी स्ट्रीम भी. लेकिन इन सारी बातों को हम सब समझ नहीं पाते हैं. हमें दुसरे समाज की भाषा संस्कृति ही अच्छी लगती है. इस वजह से हम अपनी मातृ भाषा एवं संस्कृति को छोड़ते चले जा रहे हैं. मेरा कहना है कि जिस शिद्दत से हम दिकु संस्कृति को अपना रहे हैं अगर उसी अंदाज में हम अपनी भाषा संस्कृति को सीखें, उसे प्यार करें तभी हमारा भविष्य बच पाएगा और उसका विकास संभव हो पाएगा. जिस दिन हमारे जुबान से भाषा चली जाएगी, अखरा से नाच - गान चला जाएगा, खेतों से हल और बैल का नाता ख़त्म हो जाएगा, उस दिन समझ लीजिए कि हमारे हाथ से सब कुछ छीन गया. ख़त्म हो गया. मां, चाहे वह अंधी या लूल्ही, लंगडी हो, मां होती है. माँ के आँचल में ममता एवं मातृत्व छुपा रहता है. मौसेरी मां जितनी भी प्यारी हो मां का जगह नहीं ले सकती. हम जब तक अपनी चीजों पर गर्व नहीं करेंगे, आगे नहीं बढ़ पाएँगे. आदिवासियों के ख़त्म होते मातृ भाषा के मद्देनजर यू एन ने इस वर्ष को मातृ भाषा वर्ष घोषित किया है. आधुनिक शिक्षा व्यवस्था या आज की मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था से हमारा समाज का कभी विकास संभव नहीं है. वह व्यवस्था व्याक्तिवादी, पूंजीवादी, और राज्यहित की बात करता है, हम एक प्रकार से अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता के गुलाम हो गए हैं. हमारे समाज को संचालित करने का जो परंपरागत सिस्टम था, वह था - पड़हा और धुमकुड़िया सिस्टम, जो समाज के सर्वांगीण शिक्षा का केंद्र बिन्दू था. अखरा संस्कृति जो सभों को जोड़कर रखती थी, सब ख़त्म हो गयी. अब सवाल यह उठता है कि हम इसे पुनर्जीवित कैसे करें? हमारे विश्व विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे तो एम ए, पीजी की डिग्री डिप्लोमा तो कर रहे हैं लेकिन शोध के तौर पर हमारे बच्चे लिखी लिखाई बातों को ही कोपी - पेस्ट कर रहे हैं. अभी के दौर में गहन अध्ययन कोई नहीं कर रहा. विश्व विद्यालय में पढ़ा रहे भाषा साहित्य के प्रोफ़ेसर भी साहित्य सृजन के काम नहीं कर रहे. ऐसे में हमारे भाषा संस्कृति का विकास कैसे संभव होगा? आज हमें जरुरत है नए तौर तरीकों से शोध अध्ययन और अनुसन्धान करने का.

हमारे समाज में राजनीतिक चेतना का अभाव है. राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव लड़ने से नहीं होता. हम अपने मौलिक अधिकारों के प्रति कैसे जागरूक हों, इसके प्रति आवाज बुलंद करना भी राजनीति के दायरे में आता है. अभी तो लोग अन्नाज योजना, आवास योजना, शौचालय योजना, उज्जवाला गैस योजना, वृधा पेंशन आदि पाने को ही राजनीति समझा जाता है. जबकि ये योजनाएं हैं, जो कि सरकार के द्वारा दिए जाने का प्रावधान है. और हम इतने में ही सिमट कर रह जाते हैं. हमारी जीवन शैली ऐसी होनी चाहिए जिसमें सिर्फ सामाजिक ताने बने ही न दिखे बल्कि हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए जो राजनीतिक चेतना से सराबोर हो. सामाजिक चेतना के कमी होने की वजह से हम जब हमें अच्छे जन प्रतिनिधि चुनने के अवसर आते हैं तो एक कर्मठ नेता की जगह कई नेता बरसाती कुकुरमुत्ते की तरह उठ जाते हैं. हाँ, लोकतंत्र है, उठ तो जाते हैं लेकिन बैठना नहीं जानते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि हम हमेशा ही अच्छे लीडर को चुन कर भेज नहीं पाते हैं और ५ वर्षों तक पछताते रहते हैं. हमारा विजन समाज के प्रति साफ़ और दूरदर्शी होना चाहिए. और समाज के लोगों को भी ऐसे ही नेताओं को चुनकर विधान सभा या लोक सभा भेजना चाहिए जो हमारे लिए अच्छे कानून का निर्माण कर सकें. विडंबना यह है कि कई वर्षों के अंतराल के बाद भी ये नेता हमारे झारखंडी भाषाओँ के विकास के लिए कुछ कदम उठा नहीं पाए हैं अभी भी संताली भाषा को छोड़ शेष झारखंडी भाषाओँ को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की दिशा में तनिक भी कदम नहीं उठाई गयी है. दूसरा अहम् सवाल यह है कि गत १९ सालों में झारखण्ड की स्थानीय नीति झारखंडी भावनाओं के अनुरूप क्यों नहीं बनाई जा सकी. झारखण्ड बनाने से आख़िरकार क्या परिवर्तन हो पाया? मांडर, बेडो, कर्रा, खूंटी, पिठोरिया और ओरमांझी यानि रांची शहर के आस पास के गांवों के लोग रोज दिन शहर में रेजा - कुली का काम करने के लिए आएं? अपार्टमेन्ट में दाई का काम करने आएं? क्या इसी उद्देश्य के लिए अलग झारखण्ड राज्य का निर्माण किया गया था? नहीं. भाषा, संस्कृति, अस्मिता, जल, जंगल, जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, रोजगार, उद्योग नीति, पर्यावरण आदि मुद्दों पर जन पक्षीय क़ानून बनानी थी. बनना तो दूर, जमीन अधिग्रहण के मामले में ग्राम सभा से सहमती लेने तक की बात को हटा दिया गया. वनाधिकार क़ानून के रहते लाखों लाख आदिवासियों को जंगल से हटाने की बात देश के सुप्रीम कोर्ट के द्वारा की जा रही है. जब यहाँ के आदिवासियों ने जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ना शुरू किया तो यहाँ कि सरकार ने सरना आदिवासियों और इसाई आदिवासियों को एक दुसरे के खिलाफ भिड़ाने के लिए धर्मान्तर क़ानून बनाया. ताकि उनकी एकता टूट सके. और इसमें वह सफल भी हुआ. ऐसा करके उसने जन विरोधी जमीन अधिग्रहण क़ानून लाया. यह अलग बात है कि झारखण्ड में ग्राम सभाओं ने सरकार की षड्यंत्रकारी नीति को चलने नहीं दिया. एक दो योजनाओं को छोड़ कोई भी योजना को जमीन पर उतरने नहीं दिया. सरकार यानी कि इसके तीनों खम्भे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सारे सिस्टम लचर स्थिति में हैं. मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, वह आज सरकार का भोपूं बन चूका है. इस तरह से हम देखते हैं कि झारखण्ड मांग के सारे सपने अधूरे ही रह गए.
इस विषम परिस्थिति में हम सभी को सोचने समझने कि जरुरत है. डा. आंबेडकर आदिवासियों और दलितों से कहा करते थे – पढो, लिखो, संगठन बनाओ और संघर्ष करो. हम सिर्फ शिक्षा ग्रहण न करें. हम समाज के प्रति जिम्मेवार नागरिक बनें. हमने समाज से बहुत कुछ लिया है. अब समय आ गया है कि हम समाज को कुछ दें. यदि हमारा समाज बचेगा तभी हम बचेंगे, हमारी भाषा बचेगी तभी हमारी पहचान बचेगी. यदि हमारा अस्मिता बचा रहेगा तभी हमारा अस्तित्व भी बचा रहेगा. आज इस बात कि जरुरत है कि हमारे समाज का चौतरफा विकास कैसे हो?यदि हम नव निर्माण की बात करें तो हमारा मकसद होना चाहिए - आने वाली पीढ़ी के भविष्य का निर्माण करना.
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