आदिवासियों को भी चाहिए, अपने लेखकों की किताबें
- Mahadev Toppo
- Jan 30, 2021
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कहा जाता है कि किताबें ज्ञान की खान होतीं हैं. यह भी कहा जाता है कि जिस समुदाय के लोग जितनी किताबें पढ़ते हैं, लिखते हैं वे उतने ही सामाजिक, राजनातिक, सांस्कृतिक, मानसिक रूप से जागरुक एवं मजबूत होने के साथ साथ आत्मविश्वास से लबरेज होते हैं. भारत में तमिलों, बंगालियों, मराठियों, गुजरातियों का उदाहरण देखा जा सकता है. इसके मुकाबले मध्य भारत के लोग और विशेषतः आदिवासी, अक्षर-ज्ञान के मामले में काफी पिछड़े हैं. फलतः आधुनिक कहे जानेवाले दुनिया में वे शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति, तकनीकी ज्ञान आदि के मामले में पिछड़ते हुए दिखते हैं. जबकि पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी - राजनीति, साहित्य, संस्कृति, कला, खेल, शिक्षा, प्रशासन, तकनीकी ज्ञान के मामले में तुलनात्मक रुप से मध्य भारत के आदिवासियों से ज्यादा सचेत, जागरूक, जुझारू और ज्ञानार्जन के मामले में आगे बढ़े हुए नजर आते हैं. इसलिए कि कई किताबों ने इन लोगों को कहीं न नहीं किसी न किसी रूप में मानसिक रुप से ज्यादा दृढ़ और सक्षम बनाया है|

इसका एक कारण स्पष्ट है कि पूर्वोत्तर राज्यों में पांच से दस-बीस लाख तक की आबादी वाली भाषाओं के अखबार और किताबें लगातार प्रकाशित की जाती हैं. देखकर आश्चर्य होता हे कि डीफू जैसे कार्बी भाषी एक छोटे शहर से तीन चार अखबार कार्बी भाषा में प्रकाशित होते हैं. कोहिमा से कई नगा भाषाओं में छोटे छोटे अखबार प्रकाशित होते हैं. शिलांग जैसे पहाड़ी शहर से खासी भाषा में चार दैनिक प्रकाशित होते हैं जिसमें से एक अखबार के नियमित प्रकाशन के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं. निश्चय ही इनके मुकाबले शेष भारत के आदिवासी कहीं नहीं ठहरते. रांची, जमशेदपुर, धनबाद, राउरकेला, रायगढ़, अंबिकापुर, जगदलपुर जैसे शहरों के आस पास जहां कुछ ज्यादा साक्षर आदिवासी हैं, वहां किसी आदिवासी भाषा में दैनिक की बात छोड़ दीजिए साप्ताहिक तक प्रकाशित नहीं होते. हां, संथाली में कुछ साप्ताहिक पत्रिकाएं जरुर प्रकाशित हो रहीं हैं जैसे “होड़ संवाद” और “देबोन टिंगुन” आदि. संताली में कुछ रंगीन पत्रिकाएं भी प्रकाशित हो रही हैं. रांची से एक बहुभाषी दैनिक प्रकाशित होने की सूचना है. इसके अलावा “झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा” द्वारा एक बहुभाषी पाक्षिक “जोहार दिशुम खबर” प्रकाशित किया जा रहा है. हो, कुर्माली, कुड़ुख, खड़िया एवं मुंडारी, पंचपरगनिया, कुर्माली, खोरठा आदि भाषाओं में कुछ मासिक एवं त्रैमासिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रहीं हैं. इन भाषाओं में कुछ परीक्षोपयोगी और प्रतियोगिता संबंधी कुछ किताबें भी प्रकाशित हो रहीं हैं. लेकिन, रचनात्मक स्तर पर संताली के सिवा अन्य भाषाओं में वांछित रुप से प्रकाशित पुस्तकों की संख्या कम है, जोकि साक्षर व शिक्षित आदिवासी समाज के समक्ष एक बड़ा प्रश्नचिह्न है. अतः, आदिवासी समाज का सांस्कृतिक अस्तित्व कई बार कमजोर नजर आने लगता है, जो उन्हें कई बार ज्यादा ही दिग्भ्रमित, कुंठित एवं आत्मघाती बना देता है .

अपनी भाषाई क्षेत्र की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, भाषिक, भौगोलिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, जीवन- दर्शन के साथ आत्मसम्मान को जगाये एवं बनाये रखने का काम मातृभाषा में प्रकाशित पुस्तकों से बेहतर काम और कोई नहीं कर सकता. लेकिन अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की गिरफ्त में आ जाने के कारण उनका सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संकट के अलावा राजनीतिक संकट कुछ हद तक बढ़े हैं. इसलिए यह कहा जाता है कि आदिवासी समाज के निरंतर पतन की राह पर अग्रसर होने का एक बड़ा कारण उनकी भाषाओं में किसी प्रकार के आत्मचिंतन, आत्मविश्लेषणपरक पुस्तकों का अभाव है. हालांकि हिन्दी एवं अंग्रेजी में आदिवासियों के इतिहास, राजनीति, भाषा, साहित्य, रीति रिवाजों से संबंधित कई कई किताबें वाणी, राजकमल, पेंग्विन, ऑक्सफोर्ड, सेज, ज्ञानपीठ, विकल्प के साथ-साथ रांची के झारखंड झरोखा, प्यारा फाउंडेशन, कोलकाता से आदिवाणी के अलावा अनेक छोटे बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की गईं है. अब इनकी संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है, यह अच्छा संकेत है| जब तक पारंपरिक आदिवासी सामाजिक व्यवस्था कायम थी, सामाजिक सांस्कतिक बिखराव के संकट कम थे. क्योंकि तब लोग धुमकुड़िया, अखड़ा में मिल बैठकर विविध मुद्दों पर चर्चा करते और आपसी सहयोग से उनके निदान का प्रयास भी करते थे. आजादी के बाद यह पारंपरिक व्यवस्थाएं लगातार टूटती रही, जिसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव शहरी आदिवासी युवाओं पर पड़ा है. क्योंकि शहर में वह अपनी भाषाई एवं सामाजिक परंपरा से कटने के साथ अपनी भाषिक, सांस्कृतिक जड़ों से भी दूर होता जा रहा है. ऐसी दुरुह स्थिति में उन्हें राह दिखाने का काम, एक सांस्कृतिक नेतृत्व कर सकता था, वह प्रभावी ढंग से हो नहीं पा रहा है. हालांकि इस दिशा में कुछ प्रयास सरकार के सहयोग से किये भी जा रहे हैं. ऐसे में आदिवासी बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, सामाजिक-कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों, लेखकों एवं विद्वानों के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वे कैसे प्रभावी काम कर दिखाएं. यह बात पहले भी कई बार दुहरायी जा चुकी है कि अधिकांश सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं ने सबसे पहले आदिवासियों की भाषाई चेतना को मारा है और उनके आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान को सुनियोजित ढंग से आघात पहुंचाया है. क्योंकि जब कोई समुदाय अपनी भाषा की जड़ों से कटते हैं तो उनकी सामाजिक, आध्यात्मिक, आर्थिक गतिविधियों की सोच एवं मूल्य लगातार टूटते जाते हैं. झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व बंगाल में यह काम बहुत ही सुनियोजित ढंग से किया गया है और आदिवासियों को अपने मूल भाषाई, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक चेतना को पिछड़ा तथा आधुनिक युग के लिए अप्रासंगिक बताकर उनकी चेतना को मारने के लिए हर प्रकार के बौद्धिक कुप्रयास के अलावा साजिशें भी रची जा रहीं हैं. विभिन्न कुप्रयासों के कारण उनका आत्मविश्वास भी लगातार घटता जाता है और अंततः वे स्वयं को एक असहाय स्थिति में पा रहे हैं, जो उनके हर अवनति एवं पतन का कारण बनते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में आदिवासी इलाकों में वर्चस्ववादियों, विस्तारवादियों एवं धरती की संपदा के लुटेरों को यह स्थिति अपने स्वार्थसिद्धि के लिए मुफीद हो जाती हैं और वे आसानी से आदिवासियों की हर संपदा के मालिक बनते चले गए हैं. आदिवासी तब इन अति महत्वाकांक्षी सेवा संस्थानों एवं प्रसिद्धि के लिए भूखे समाजसेवियों के लिए उपयुक्त चारागाह एवं उनके कैरियर के लिए, सीढ़ी भी बन जाते हैं. निश्चय ही यहां पर आदिवासी समाज, एकजुट प्रतिरोध कर पाने में स्वयं को कमजोर पाता है क्योंकि वे अपनी हित रक्षा के लिए वैचारिक सामंजस्य स्थापित कर नहीं पाते हैं. ऐसी स्थिति में साक्षरता एवं किताबें आदिवासियों के अस्तित्व रक्षा के लिए एक कारगर उपकरण हो सकते हैं. संकटग्रस्त एवं दुविधाग्रस्त आदिवासी समाज को उपयुक्त किताबें सही मार्गदर्शन दे सकतीं है बशर्ते ये किताबें आत्ममंथन करने के लिए लोगों को प्रेरित कर सके. वे मुद्दों, समस्याओं पर चर्चा कर सकते हैं. किताबें उनकी स्थिति से परिचित कराकर उनके भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं. क्योंकि कहा जाता है साहित्य समाज का दर्पण है. अतः साहित्य में समाज की अच्छी, बुरी छवि को देखकर वे खुद को, समाज को बेहतर बनाने के लिए सार्थक सोच के साथ, सही कदम उठा सकते हैं. ऐसा संभव इसलिए है कि जब वे विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से अपनी सामाजिक राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, मानसिक शक्तियों एवं कमजोरियों को जानेंगे तो निश्चय ही वे कहीं न कहीं स्वयं को सुधारेंगे और मजबूत करेंगे.
वर्तमान में विभिन्न वर्चस्ववादी, सामंतवादी, साम्राज्यवादी, तानाशाही, पूंजीवादी, मुनाफाखोर तथा उपभोक्तावादी- आत्मकेन्द्रित संस्कृति ने आदिवासी समाज को इतनी बुरी तरह ग्रस लिया है कि वे लगातार बिखरते और कमजोर होते जा रहे हैं. साथ ही अन्य समाज की बुराइयों को अपना रहे हैं. फलस्वरूप उनकी एकता की मजबूत कड़ी लगातार कमजोर होती जा रही है. उनसे बचने के कई रास्तों में से एक रास्ता यह भी है कि वे तमाम भेदभावों, मतभेदों को भुलाकर मातृभाषा में अधिक से अधिक किताबें लिखें और इस दिशा में गंभीरतापूर्वक कंधे से कंधा मिलाकर काम करें. तभी आदिवासी अपनी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, मानसिक, भाषिक उपस्थिति को देश और समाज के बीच दर्ज कर सकते हैं. प्रतिरोध की बात करते, उन्हें चेतना संपन्न बनाने के प्रयास में हमारे कई विद्वान, लेखक या साहित्यकार इस बिन्दु की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहे हैं. अच्छी किताबें तथाकथित आधुनिकता, परंपराओं के प्रति द्नव्द्व, आतंकवाद और नक्सलवाद के गिरफ्त में फंसे या अन्य दिग्भ्रमित आदिवासी युवाओं को राह दिखाने में भी सक्षम हो सकतीं हैं. अतः युवाओं के लिए ऐसी किताबों की सामाजिक जरुरत से इनकार नहीं किया जा सकता. आदिवासी बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया प्रयास अभी कम दिखता है. लेकिन, हजारों वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को झेलकर, नई समस्याओं को समझकर, अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करता आदिवासी समाज यहां भी नया कुछ कर दिखायेगा, इसका विश्वास है. ऐसा आत्मविश्वास इसलिए दिखता है क्योंकि युवा आदिवासी पीढ़ी इंटरनेट, सोशल मीडिया,कला, सिनेमा जैसे आधुनिक तकनीकों को अपनाकर किताबों की कमी की क्षतिपूर्ति कर रही है. आदिवासी जैसे ही पुस्तकों की या
इनके विकल्पों के सामाजिक महत्व को समझेगा वह हर विषय पर बेहतर किताबें इसलिए लिख सकेगा क्योंकि - जल, जंगल, जमीन एवं जमीर से जुड़ी उनकी सजगता, जिजीविषा और पुरखों की संघर्षशीलता, उन्हें बहुत कुछ
नया लिखने के लिए उसे प्रेरित करती रहती है, जोकि दुनिया को बचाने के लिए आज ज्यादा प्रासंगिक हो गई
है|
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