प्रतिरोध के सिनेमा - बीजू टोप्पो
- बीजू टोप्पो
- Feb 2, 2021
- 7 min read
सिनेमा का मतलब लोग सीधे तौर पर हॉलीवुड और बॉलीवुड फिल्मों के मारधाड़, नाच- गान, डायलोग एवं मनोरंजन से जोड़ देते हैं, लेकिन इसका अर्थ सिर्फ मनोरंजन से नहीं होता| इसका व्यापक मतलब दर्शकों को सूचना देने , शिक्षित करने और मनोरंजन करने से होता है. हॉलीवुड और बॉलीवुड जिसे हम मुख्यधरा की सिनेमा भी कहते हैं, जो हमें कल्पना पर जीना सिखाती है, इसमें हीरो हिरोइन और अन्य सहायक कलाकार महज तीन घंटे के अन्दर ही जिदगी की सारी मुश्किलें हल कर खुशियों को बटोर लाते हैं, जिसे आज के युवा अपना रोल मॉडल मान लेते है. ये फ़िल्में व्यावसायिक होते हैं, इनका मुख्य उद्देश्य ही होता है रातों रात करोड़ों की कमाई कैसे हो इसलिए ये फ़िल्में फैशनेबुल और मसालेदार हुआ करती हैं, इसमें युवा वैसे ही आकर्षित होते हैं जैसे बरसात की रातों में फतिंगे रोशनी से आकर्षित होते हैं. ये काल्पनिक फ़िल्में समाज के यथार्थ को कभी भी आईने की तरह नहीं दिखाती. इन फिल्मों में मानव सभ्यता से भिन्न जीवन-दर्शन को प्रदर्शित किया जाता है. इसमें मानव मूल्य से हटकर पूंजीवादी उपभोगता संस्कृति को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है. इन फिल्मों में इलीट वर्ग के प्यार-मोहब्बत और उनके सुख – दुःख को सुनहरे परदे पर दिखाया जाता है. ये वैसी फ़िल्में होती हैं जिससे सरकार के कामकाज पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता है. बल्कि ये फ़िल्में ऐसी युवा शक्ति को, जो देश में फैले हुए भ्रष्टाचार,सरकार द्वारा बरती जा रही जातीय और धार्मिक भेद, बेरोजगारी, महिला हिंसा और बलात्कार राजकीय दमन, अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता,विनाशकारी विकास, अपसंस्कृति, राजनीतिक पतनशीलता, किसानों की आत्महत्याएं, छात्रो की समस्यायों के प्रतिरोध में सड़कों पर संघर्ष करती, को सिनेमा घरों में बंद करके रखती है. ये युवा भी ऐसी समस्याओं का समाधान फिल्मों के जरिये तलाशते हैं. ऐसे युवा शायद ही सड़कों पर उतरते हैं.
मुख्यधारा के सिनेमा के उलट एक वैकल्पिक समानांतर सिनेमा भी होती है जिसे हम पीपुल्स फिल्म या वृतचित्र कहते हैं. ऐसी फिल्मों के माध्यम से हम आम जनता के जीवन के सच्चाई से रूबरू होते हैं. ये फ़िल्में मुख्य धारा की फिल्म के इत्तर जनता के सवालों, इज्जत से जीने के अधिकारों, प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनता के मालिकाना हकों, दलित- शोषितों के मानव अधिकारों और पर्यावरण एवं विकास पर जन तरफदारी करती हैं. ये फ़िल्में देश में बन रहे बड़े बांधों एवं कारपोरेट विकास के लिए अंधाधुंध किये जा रहे खनन कार्यों पर सवालिया निशाँ लगाती हैं. इन फिल्मों के निर्माण और स्क्रीनिंग से सरकार की कुर्सियां हिलने लगती हैं. इसलिए ऐसी फिल्मों को सेंसर बोर्ड पास भी नहीं करती हैं, क्योंकि ये प्रतिरोध की सिनेमा होती हैं. ये फ़िल्में मानवीय मूल्यों को सहेजकर रखने की लड़ाई होती है और इस लड़ाई में फिल्म के असली किरदार जनता होती है. यही विशेष कारण है की इन फिल्मों को सिनेमा घरों में दिखाई नहीं जाती है. इसे फिल्मकारों को ही अपने प्रयास से जनता के बीच गली-मोहल्लों कस्बों और गाँव में दिखानी पड़ती है. उन्हें अपने प्रयास से फिल्मों का निर्माण, वितरण एवं प्रदर्शन करना पड़ता है. साधारणतः ऐसी फ़िल्में बगैर टिकट के ही दिखानी पड़ती है. यानी उन्हें दर्शक भी खुद तैयार करनी पड़ती है.

अगर हम प्रतिरोध की सिनेमा को झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसकी शुरुआत 90 के दशक में ही हो चुकी थी. इस दशक में वृतचित्र फिल्मकार मंजीरा दत्ता ने बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी बनायी थी जो एक कोयला मजदूर की ह्त्या पर आधारित फिल्म थी. इसी दशक में चांडिल और इचा खरकई बड़े बाँध के खिलाफ वसुधा जोशी और रंजन पालित ने फोलो द रेनबो फिल्म बनाकर जनता के संघर्ष को आगे बढाया. 90 के दशक में नयी आर्थिक नीति और उदारीकरण की नीति लागू होने के कारण झारखण्ड के कई इलाके अपने जल जंगल और जमीन बचाने के लिए आंदोलनरत थे, ऐसे दौर में एक प्रख्यात वृतचित्र फिल्म निर्माता- निर्देशक श्री प्रकाश ने कई फ़िल्में बनायी. 1994 में उन्होंने लातेहार और गुमला जिले के पठार में पायलेट प्रोजेक्ट नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज, जिससे 245 गाँव का विस्थापन होता, के ऊपर 'किसकी रक्षा' फिल्म बनायी. 1995 में उन्होंने कोइलकारो जल विद्युत परियोजना के खिलाफ 142 गाँव को उजड़ने से बचाने के लिए उनके आन्दोलन पर 'ओडो मियाद उलगुलान' फिल्म बनायी. पूर्वी सिंहभूम के जादूगोड़ा में युरेनियम माइनिंग से होनेवाले विकिरनीय प्रभाव को उजागर करने के लिए उनहोंने रागी काना को 'बोंगा बुरु' फिल्म बनायी. हजारीबाग में कोयला खनन के ऊपर पर्यावरण एवं विस्थापन की समस्या पर “फायर विदिन “बनाया.
इसी वैकल्पिक फिल्म विधा को आगे बढाते हुए मेघनाथ के साथ मैंने भी जनहक के सवालों पर कई फ़िल्में बनायी. 90 के दशक में लातेहार जिलान्तर्गत महुआडांड़ प्रखंड के चिरोपाट में नागेसियाओं ने हिंडाल्को कंपनी की नींद हराम कर रखी थी. वहाँ लम्बे समय से बोक्साईट खनन के खिलाफ लड़ाई चल रही थी. छोटे समूह के नागेसियाओं ने एक बड़ी माइनिंग कंपनी को पानी पिला दिया था. उनके इस धरती माँ बचाने की लड़ाई को जोहार करने के लिए हमने 1997 में 'जहां चींटी लड़ी हाथी से' फिल्म बनायी. बड़े बाँध के सवाल पर कोइल्कारो आन्दोलन एक महत्वपूर्ण आन्दोलन है. यह 1970 के दशक से ही चली आ रही है. इस आन्दोलन को कुचलने के लिए नवनिर्मित झारखण्ड राज्य के भाजपा सरकार ने शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे हजारों जनता पर गोलियां चलाई जिससे मौके पर ही 8 लोगों की मौत हो गयी. यह उदारीकरण का दौर था. सभी राज्यों में जहां प्राकृतिक संपदा भरे पड़े हैं, वहाँ भी ऐसी ही राजकीय दमन चल रही थी. बन्दूक के नाल से राज्य के विकास का सपना देखा जा रहा था. वैसे 3-4 राज्यों उड़ीसा, म.प्र.,छ.ग. एवं गुजरात का शोध कर हमने 2002 में विकास बन्दूक के नाल से बनायी.

झारखण्ड, उड़ीसा,प.बं., छ.ग., में इस समय स्पंज आयरन के कारखाने कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे थे.स्पंज आयरन फैक्ट्री से होने वाले पर्यावरण और जन जीवन पर पडनेवाले दुष्प्रभाव के खिलाफ वहाँ की जनता लड़ाई पर उतर आयी थी. इसी जन आन्दोलन को हमने कमरे में कैद किया और 2010 में हमने 'लोहा गरम है' नामक फिल्म बनायी. इस फिल्म को वैसे कई जगहों पर दिखाई गयी जहां फैक्ट्री लगने वाली थी, इसका प्रभाव यह हुआ कि कई जगहों पर फैक्ट्री लगनी बंद हो गयी. कांके प्रखंड का नगड़ी गाँव,जो 2013 में अखबार की सुर्खियाँ बटोर रहा था. इसलिए नहीं की वहाँ महामारी फ़ैल गयी थी बलही इसलिए कि वहाँ जमीन अधिग्रहण के बिरुद्ध सरकार के खिलाफ में प्रतिरोध का ऐसा तेवर दिखा कि 4-5 महीने तक गाँव के बच्चे, युवा, मर्द औरत सभी अपने कामों को छोड़कर खेतों पर जमे रहे और सरकार का जबरदस्त प्रतिकार किया. इस युद्ध जैसी स्थिति का हमने फिल्मांकन कर प्रतिरोध फिल्म बनाई. देश के रेड कोरिडोर इलाके में मानव अधिकार उल्लंघन का मामला गहराता जा रहा था.सरकार के तथाकथित विकास मोडल के खिलाफ खड़े होने वाले कार्यकर्ताओं और समुदायों के लड़ाई को कमजोर करने के लिए सरकार सोची समझी रणनीति के तहत उन्हें नक्सली करार कर झूठे मामलों में फंसाती रही है. इस अभियान को अंजाम देने के लिए सरकार ने एक ओपरेशन चला रखा था, जिसका नाम था – ओपरेशन ग्रीन हंट. इसी आलोक में मैंने एक छोटी फिल्म बनायी – 'दि हंट'. रांची के रंगकर्मी अश्विनी कुमार पंकज ने अपने नाटक और साहित्य में प्रतिरोध के स्वर को तो बखूबी बरता ही, उनहोंने दो एक प्रतिरोध के सिनेमा भी बनाये जिसमें गन पॉइंट और पचुवाड़ा चर्चित रहा.
झारखण्ड के अलावे देश में भी ऐसे कई फिल्मकार हैं जिन्होंने प्रतिरोध के सिनेमा को खडा करने का बीड़ा उठाया है.आनंद पटवर्धन ने दलित मुद्दे से लेकर सांप्रदायिकता के मुद्दे पर कई चर्चित फ़िल्में बनाई. उनहोंने सांप्रदायिक मुद्दे पर राम के नाम, विस्थापन के सवाल पर नर्मदा डायरी, अमन और चैन के लिए वार एंड पीस, दलित मुद्दे पर 'जय भीम कामरेड' जैसी फ़िल्में बनाई. केपी शशि ने 'ए वैली राइजेस टू डाई', 'समंदर के सौदागर' फिल्म बनायी. वहीं पर उनहोंने दो अलबम 'अमेरिका - अमेरिका' और 'गाँव छोड़ब नहीं' बनाया. संजय काक ने 'वर्ड्स ऑन वाटर', 'जश्न- ए- आजादी', और 'रेड ऐन्ट ड्रीम' सरीखे महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाई है . इसके अलावे 'कनवर की फ्रीडम', बिनोद राजा की 'महुआ मेमोर', सूर्य शंकर दास की 'नियमगिरी', 'शॉट डेड', 'वार फॉर द लामेंट ऑफ़ नियमगिरि' और आर.पी. आमूदन की 'सिट ' और 'कोडा कुलम' में बनाए जा रहे परमाणु संयंत्र के खिलाफ बनी फिल्म काफी चर्चा में रहीं. शरत चंद्रन की फिल्मों में 'बिटर ड्रिंक', 'ड्रीम', 'द थर्ड आई ऑफ़ रेजिस्टेंस', और 'थौसेंड डेज एंड ए ड्रीम' प्रमुख हैं. 'डेम्ड', 'कोटन फॉर मय श्राउड', 'आई कैन नोट गीव यू मय फारेस्ट' नामक फिल्म नंदन सक्सेना और कविता बाहल ने बनायी. इस तरीके से देश के कोने कोने से शोषण के खिलाफ, जन मुद्दों, पर्यावरण, और सही विकास के मुद्दे पर सीमित संसाधनों के बावजूद प्रतिरोध की फ़िल्में बनायी जा रही हैं.
अगर हम वैश्विक स्तरपर प्रतिरोध की फिल्मों की बात करें तो विश्व युद्ध के वक्त भी कैमरे ने चुपी नहीं साधी. चार्ली चैपलीन जैसे महान कलाकार ने मजदूर आन्दोलन के ऊपर 'मॉडर्न टाइम', 'ग्रेट डिक्टेटर', और 'द गोल्ड रश' बनाकर लोगों के दिलों में बस गए. ये उस जमाने की प्रतिरोधी फ़िल्में हैं लेकिन बच्चे से बूढ़े आज भी इसे देखते उबते नहीं हैं. उनकी फिल्म उस समय की सत्ता और राजनीति पर व्यंग्य है जो हंसी हंसी में ही गंभीर बातें कह जाती है.
लुमियर ब्रदर्स ने जब कैमरे का आविष्कार किया था, तो उस कैमरे से उनहोंने पहली बार जो शॉट ली थी वह था- मजदूरों के फैक्ट्री से बाहर निकलना का था. इससे यह लगता है कि लुमियर ब्रदर्स को विजुअल मीडिया के ताकत का एहसास पहले से ही था. वे मजदूरों की समस्याओं की फिल्म मजदूरों को ही दिखाते थे ताकि उसकी राजनीतिक चेतना बढे और वे मुक्ति का मार्ग तलाश सके. लेकिन आज इस विचारधारा ने अपना ट्रैक बदल लिया है. आज इसका उपयोग मनोरंजन और व्यावसायिक ग्लैमरस फिल्म बनाने के लिए हो रही है. हमें फिर से उसके उद्देश्य को स्मरण करना चाहिए. और गरीबों, शोषितों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की मुक्ति का रास्ता खोजने में उनकी मदद कैमरे से करनी चाहिए. तब यही लुमियर ब्रदर्स को सच्ची श्रधांजलि होगी.
कुछ फिल्मों को आप इस लिंक में जा कर देख सकते हैं - अखड़ा
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