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कोड़ा राजी

  • Writer: Abua Disum
    Abua Disum
  • Mar 27, 2021
  • 2 min read

2005 में बनी ‘कोड़ा राजी’ एक तरह से इसी गाने का विस्तार है. इस फिल्म के निर्देशक बीजू टोप्पो खुद भी ‘कुरुख’ है. एक तरह से यह फ़िल्म अपने ‘कुरुख’ पुरुखों को खोजने का प्रयास है जो दशकों पूर्व कोड़ा कमाने आसाम और उत्तर बंगाल चले गए थे. कोड़ा कमाने का यह सिलसिला 1840 से शुरू हुआ जब आसाम और उतर बंगाल के चाय बागान में काम करने के लिए बड़े पैमाने पर झारखंडी लोगों को यहाँ लाया गया. काम की खोज में अपनी जमीन को छोड़कर दूसरी जगह जाने को ही कोड़ा कमाने कहा गया है. फ़िल्म के निर्देशक बीजू अपनी पत्नी के बहाने फ़िल्म के आख्यान को आगे बढ़ाते हैं. फ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा फ़िल्म टीम के रांची से आसाम आने और इस क्रम में चाय बागान के पूरे कामकाज को सिलसिलेवार तरह से दिखाने में बीतता है. चाय के बागान से पत्ती तोड़ने और उन्हें मशीन पर फाइनल प्रोडक्ट के रूप में तैयार करने की पूरी प्रक्रिया को बकायदा एक गाने के जरिये पेश किया गया है. इस प्रकिया में टी टेस्टर द्वारा चाय की गुणवत्ता को परखने वाला दृश्य तक शामिल है लेकिन ये विवरण और दृश्य संयोजन फ़िल्म को ख़ास नहीं बनाता है. इस प्रक्रिया को फिल्माने के क्रम में बीच –बीच कई झारखंडी लोगों से बात की गई है. यह बातचीत ही इस फ़िल्म की सबसे जरुरी उपलब्धि है जो कोड़ा राजी के असल माने समझा पाती है. पूरी फ़िल्म दो तरह की लोकेल में घटती है. पहली है बागान वासियों की रिहायशी कालोनी और दूसरा चाय बागान. कैमरा कई बार लॉन्ग शॉट में कालोनी के दृश्य दिखाता है. इन दृश्यों से जो कहानी बनती है उससे हम बागान मजदूरों की नारकीय जिन्दगी से आसानी से बाबस्ता हो जाते हैं. चाय बागान के मैनेजरों के आलीशान बंगलों की तुलना में ये कालोनियां किसी गंदे स्लम से कुछ ज्यादा की हैसियत नहीं रखती हैं.


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