अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : आदिवासी स्त्रियों की जागरूकता से सशक्त हो रही ग्रामसभा
- Jacinta Kerketta
- Mar 7, 2023
- 4 min read
गांव में घंटी बज रही है. यह किसी स्कूल की घंटी नहीं है. यह ग्रामसभा में जुटने के लिए बजाई जाने वाली घंटी है. गांव के लोग धीरे-धीरे एक पेड़ के नीचे जुट रहे हैं. स्त्रियों की संख्या अधिक है. वे अपने बच्चे को बेतरा कर आ रही हैं. गांव के कई लोग रोजगार की तलाश में शहर चले गए हैं. कुछ जो गांव में रहकर ही खेती-बारी कर रहे हैं, वे महिलाओं के पीछे थोड़ी दूरी बनाकर बैठ गए हैं. बुजुर्ग भी धीरे-धीरे चलते हुए आ गए हैं. उनके लिए कुर्सी लगा दी गईं हैं. शेष लोग दरी बिछाकर ज़मीन पर बैठ गए हैं. यह गांव की ग्रामसभा है. यह झारखंड के गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड का रामपुर गांव है.
आदिवासी समाज में स्वशासन की पारंपरिक व्यवस्था है ग्रामसभा. ग्रामसभा में ही गांव की समस्याओं को लोग सुलझाते हैं. प्रारंभ में इसी पारंपरिक व्यवस्था का एक हिस्सा था धुमकुड़िया जो युवाओं की शिक्षा का केंद्र था. सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए संवाद का केंद्र भी था ग्रामसभा. 1996 में पेसा एक्ट के तहत इस पारंपरिक व्यवस्था ग्रामसभा को संवैधानिक स्वीकृति देकर सशक्त किया गया. आज ग्रामसभा गांव में विकास के लिए सरकारी योजनाएं लाने का माध्यम भी बन गया है.पर गांव की संस्कृति कैसे बचे इसकी लोग चिंता करते हैं.
गांव की भाषा-संस्कृति को सहेजकर रखने में स्त्रियों की बड़ी भूमिका है. लेकिन आदिवासी समाज के भीतर भी स्त्रियों के सशक्तिकरण की ओर बहुत ध्यान नहीं जाता है. ग्रामसभा आदिवासी क्षेत्रों में स्त्रियों को किस तरह सशक्त करता है? रामपुर गांव इसकी एक बानगी है.
रामपुर गांव की स्त्रियां बताती हैं कि पहले और बहुत हद तक आज भी आदिवासी समाज में गांव की बैठकों में स्त्रियों को बोलने, राय देने, निर्णय लेने के अधिकार नहीं हैं. लेकिन ग्रामसभा ने गांवों में स्त्रियों की भूमिका को सशक्त किया है. रामपुर गांव की ग्रामसभा में बैठे बुजुर्ग पीटर एक्का बतलाते हैं कि प्रारंभ में गांव में पंच होते थे. उनके माध्यम से गांव में पुरुष ही आपस में निर्णय लेते थे. बैठक में स्त्रियां नहीं बैठती थीं. पर आज स्थिति बदल रही है. गांव की रोशनी एक्का कहती हैं कि शुरूआत में गांव की बैठक में पुरुष सिर्फ लड़ाई-झगड़े की समस्याओं को सुलझाते थे. पर जब से ग्रामसभा में महिलाएं जुटने लगीं हैं, गांव में बहुत सी बातों की चिंता होने लगी है. गांव की स्त्रियों ने गांव के आस-पास के जंगल, चट्टान, खेत-खलिहान को बचाने के लिए संघर्ष किया है. उनके संघर्ष की अलग कहानी है.
फ्लोरा खलखो बताती हैं कि कैसे कुछ वर्ष पहले गांव की स्त्रियों ने लकड़ी माफिया को भगाकर गांव के पेड़ों को कटने से बचाया. वे कहती हैं कि 2010 में डाल्टनगंज से एक ट्रैक्टर लोग लकड़ी काटने के लिए रामपुर गांव आए थे. गांव की एक स्त्री ने घंटी बजा दी. स्त्रियां घरों से निकल आईं. गांव के अधिकांश पुरुष कमाने के लिए शहर गए थे. स्त्रियों ने ही मिलकर लकड़ी माफिया को गांव से भगाया. बाद में एक गाड़ी पुलिस आई. स्त्रियों ने उन्हें भी वापस जाने को मजबूर किया.
बाद में एक अधिकारी आए. महिलाओं ने उन्हें गांव में बैठाकर उनसे बात की. तब अधिकारी लौट गए. रामपुर गांव के बगीचे और आस-पास के जंगल कटने से बच गए. इसी क्रम में गांव की महिलाओं ने 22 एकड़ ज़मीन को भी भू - माफिया से बचाया है.
इस घटना के बाद गांव का जंगल तो बच गया लेकिन लकड़ी माफिया से जुड़े लोगों ने गांव की कई महिलाओं को झूठे केस में फंसा दिया. कई महिलाएं आज भी डाल्टनगंज जाकर केस लड़ रहीं हैं. गांव के लोग सामूहिक रूप से उन्हें आने-जाने के लिए आर्थिक सहयोग करते हैं. पर कई साल से केस लड़ते हुए वे थकान सा महसूस करती हैं तब भी उनके हौसले कमज़ोर नहीं हुए हैं. गांव में शौचालय बनने की पहल की भी एक अलग कहानी है. एक दिन गांव की स्त्रियों ने देखा कि गांव के सामने "शौच मुक्त गांव" का बोर्ड लगा है. पर गांव में कोई शौचालय नहीं है. तब स्त्रियों ने ग्रामसभा में यह बात रखी. कुछ स्त्रियों ने चैनपुर प्रखंड विकास पदाधिकारी को शौचालय के लिए आवेदन दिया. इसके बाद गांव में शौचालय बनने शुरू हुए. हालांकि गांवों में बन रहे शौचालयों में गुणवत्ता नहीं दिखाई पड़ती है.
गांव के सभी टोलों में बिजली नहीं थी. स्त्रियों ने मिलकर गांव में बिजली और पानी की व्यवस्था करने में ग्रामसभा की मदद से सफलता पाई. वे इस काम में बहुत शिद्दत से लगीं क्योंकि डिबरी की रोशनी में खाना बनाने, बच्चों को पढ़ाने आदि में उन्हें बहुत दक्कित का सामना करना पड़ता था.
इसी तरह रामपुर गांव की स्त्रियों ने अपने गांव के चट्टानों को पत्थर खनन करने वाले लोगों से बचाया. ग्रामसभा के माध्यम से गांव के लोगों ने गांव के चट्टानों को बचाकर गांव की सामूहिक जरूरतों के लिए इसका इस्तेमाल करने का निर्णय लिया है. जैसे तालाब, कुएं आदि के निर्माण में. उनके जज्बे की जितनी सराहना हो, वह कम है तब भी यह दुर्भाग्य है कि आज भी गांवों में जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए स्त्रियों को संघर्ष करना पड़ रहा है.
गांव में यह सब आदिवासी स्त्रियों की जागरूकता के कारण संभव हुआ है. गांव की महिलाओं को सशक्त करने में ग्रामसभा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. आज ग्रामसभा में उनकी भागीदारी बढ़ रही है. निश्चय ही ग्रामसभा में महिलाओं की सशक्त भूमिका से गांव-समाज सशक्त होगा.
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