कैमरे के माध्यम से आंदोलन को सपोर्ट करने की जद्दोजहद - बीजू टोप्पो
- बीजू टोप्पो
- Jan 30, 2021
- 5 min read
Updated: Feb 1, 2021
अभी के दौर में टेक्नोलोजी जिस तरह से आसान हुआ है, हमलोग उसी का फायदा उठा रहे हैं। मेरा कहने का मतलब ये है कि जहां मर्जी है कैमरा पकड़कर निकल पड़ते हैं, शूट करने लगते हैं| आज हम जिन दलित-आदिवासी की बात कर रहे हैं ये अल्पसंख्यक हैं। मेरा मानना है कि अल्पसंख्यक में हम फिल्मकार भी आते हैं, क्योंकि हमारी संख्या कम होते हुए भी जनता की समस्याओं को सामने लाने की कोशिश करते हैं।हम अंगुलियों में गिने जा सकते हैं।अगर झारखण्ड में बोलें तो सात-आठ से ज्यादा फिल्मकार नहीं मिलेंगें। उड़ीसा-छत्तीसगढ़ में देखेंगे तो दो-चार ही मिलेंगे।दक्षिण भारत में आठ-दस से ज्यादा नहीं मिलेंगे।कहने का मतलब है, जनमुद्दों को लेकर फिल्म बनाने वालों की संख्या बहुत कम है।आदिवासी इलाकों में देखें तो जल-जंगल-जमीन की बात हमलोग करते हैं और दूसरी ओर दलितों की धारा में आत्मसम्मान और गौरव की बात करते हैं। मेरे हिसाब से और एक धारा का मैं उल्लेख कर सकता हूं और वह है मजदूरों की धारा। किसान-मजदूर भी अपने अधिकार, अपने गौरव के लिए संघर्ष करते हैं, तो इन सारे मुद्दों को हमलोग कैमरे में कैद कर लोगों के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश करते है। जैसा कि हम जानते हैं फिल्म ज्यादातर मनोरंजन के लिए बन रही है लेकिन मनोरंजन का मतलब सिर्फ मनोरंजन ही होता हैं, ऐसी बात नहीं है। इसके अन्दर आत्मसम्मान, ज्ञान, अस्तित्व, अस्मिता की बात और जल-जंगल-जमीन की बात, ये सारी चीजें होनी चाहिए।लेकिन अभी इन्फोटेंट के नाम पर क्या हो रहा है? अखबार में कहें या फिल्म के माध्यम से कहें, आपलोग सभी तो देखते ही हैं| हमलोग इससे हटकर कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं।लोगों की जो समस्याएं हैं, उनको किस तरीके से सामने लायें, किस तरीके से आन्दोलन को कैमरे के माध्यम से, फिल्म बनाकर सामने लायें ये हमारा उद्देश्य रहता है।

एक छोटा सा उदाहरण आपको देते हैं कि अभी पांच साल पहले हमारा रांची में एक विस्थापन को लेकर आन्दोलन चल रहा था। एक छोटा सा गांव है नगड़ी, वहां आज से नहीं, बल्कि पिछले पचास साल से समस्या थी जो वो पिछले पांच साल पहले उभर कर सामने आयी| मैंने सोचा कि इस आन्दोलन के विषय पर फिल्म बनाना चाहिए तो हम शूट करने लगे| हमारे पास इसके लिए बजट था नहीं लेकिन जहां हम रहते हैं, वहां से आन्दोलन स्थल की दूरी महज पांच रूपये भाड़े की थी और वहां से रांची का ऑटो भाड़ा दस रूपये है, तो हम दस-पंद्रह रूपये मिलाकर आंदोलन को शूट करते रहे और वो फिल्म बनायी प्रतिरोध । जिस समय हम ये फिल्म बना रहे थे उस समय शुरूआती दौर में लोगों में खूब आक्रोश था।जब सरकार द्वारा पहली जन सुनवाई हुई उसमें पूरा विरोध हुआ और जब दूसरी जन सुनवाई हुई तो वहां पर सिर्फ बिचौलिये किस्म के लोग ही उपस्थ्ति थे, वे ही पंद्रह-बीस की संख्या में थे।तब हम लोगों को लगा कि ये आंदोलन तो खत्म हो जाएगा। तब हमलोगों ने जनसुनवाई से पहले आंदोलन की फिल्में, बारह बजे रात में गांववालों को दिखानी शुरू की। इसका नतीजा ये हुआ कि हजारों की संख्या में लोग डीसी ऑफिस नारा लगाते हुए पहुंच गए।कुछ समय के लिए वहां मेले सा महौल हो गया और छह सौ से ज्यादा सीट, जो डीसी ऑफिस में है वहां पर लोगों की भीड़ खचाखच भर गई।वहां पर फिल्म दिखाने के बाद चर्चा हुई कि अब हमलोगों को आन्दोलन के लिए निकलना है।अगर नहीं निकलेंगे तो हमलोगों की जमीन चली जाएगी। हमलोगों का अस्तित्व खतरे में है। इस तरह से यदि देखा जाए तो, हमलोगों ने उनका बहुत बड़ा सहयोग तो नहीं कर पाया।किंतु छोटे से सहयोग से ही हमने उनलोगों को मदद किया। इसी तरह से रांची में ही हटिया एक जगह है, वहां पर 6-7 गांव के लोग विस्थापन की समस्या से जूझते हुए प्रोटेस्ट कर रहे हैं।वहां पर हमलोग पहुंचे।हमने देखा कि हर मीटिंग में कभी सौ लोग आ रहे हैं, कभी डेढ़ सौ़ आ रहे हैं तो ऐसे में कैसे होगा आंदोलन? कमिटिवालों से बैठकर चर्चा किये कि एक उपाय है कि हमलोग फिल्म दिखाएंगे।हमलोगों ने अपना एलसीडी और पर्दा लेकर एक सप्ताह तक रात-रात भर कैंपेन किया। जितने भी गांव थे, सब गांवों में रात भर फिल्म दिखाये।उसका नतीजा ये हुआ कि अगली बैठक में लोग वहां काफी संख्या में उमड़कर आये।महिलाएं चर्चा करने लगी कि हमलोगों को सीखना चाहिए इस फिल्म से। वहां की महिलाएं निकली हैं, आन्दोलन कर रही हैं, तो हमलोगों को भी निकलना पड़ेगा।युवा वर्ग खुद निर्णय करने लगा कि जो नहीं निकलेगा, जिस घर से लोग नहीं निकलेंगे, पांच सौ रूपया जुर्माना लगाया जायेगा।इस तरीके से हमलोग सहयोग किये|

ये हमलोगों की कोशिश है कि किस तरीके से कैमरे के माध्यम से आन्दोलन को सपोर्ट करें। अगर देखें तो बहुत सारे लोग हैं जो दलित, आदिवासी या अस्मिता की लड़ाई को देखते हुए, जल-जंगल की समस्या को देखते हुए फिल्म बना रहे हैं।उनमें से एक हैं के.पी. शशि, वो भी फिल्म बनाते हैं और फिल्म को दिखाते हैं। उन्हें फिल्म एक्टिविस्ट कहा जाना चाहिए। एक शरतचंद्रन थे केरल के, वो कुछ साल पहले गुजर गए। उनका योगदान इस तरह से हम देखते हैं कि वो सिर्फ फिल्म बनाये नहीं, बल्कि वो गांव-गांव तक पहले टीवी ढोकर जाते थे । बीस साल पहले टीवी की समस्या थी गांव में तो वो टीवी, एल.सी.डी. सब ढोकर कैम्पेन कर रहे थे और इसका नतीजा यह हुआ कि जहां आन्दोलन चल रहे थे, वहां के कॉरपोरेट को वापस हटना पड़ा। उसी तरीके से हमारे झारखण्ड में देखें, तो हमारे बीच अश्विनीजी है। उन्होंने दो-तीन फिल्म बनाई हैं। एक है- 'गन सुनवाई'।इसका मतलब कुछ भी हो सकता है| सरकार और जनता के बीच जब जनसुनवाई होती है तो सारा का सारा खेल एक पक्षीय रहता है। वहां पर लोगों को ढोकर ले आते हैं और इस तरह से जहां जनसुनवाई होती है, वहां पर वो नारेबाजी करते हैं। वो एक तरह से डिस्टर्व ही करते हैं, ये कहना चाहिए और वो किस तरीके से प्रोजेक्ट बने इसके पक्ष में रहते हैं।लेकिन जिस तरीके का कार्यक्रम होता है, वहां पर एक तरीके से कहना चाहिए, बंदूक की नोकपर ही होता है। उसी को लेकर अश्विनी पंकज ने ‘गन सुनवाई ’ बनाये हैं। इसी तरीके से श्रीप्रकाश जी हैं जो झारखण्ड आन्दोलन के समय से ही फिल्म बना रहे हैंजैसे - अबुआ राज, बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा, ‘किसकी रक्षा’ नेतरहाट फायरिंग रेंज के उपर फिल्म बनायी है, इन फिल्मों में कैमरे का ईस्तेमाल सही मायने में जनता के हित में किया गया है। कैमरे का ईस्तमाल आनंद पटवर्धन, संजय काक एवं झरना-अनुराग जैसे फिल्मकारों ने किया। उसी तरीके से उड़ीसा के बलियापाल में आन्दोलनकारियों को साथ देने के लिए रंजन पालित एवं वसुधा जोशी ने ’वायस ऑफ वालियापाल’, बनाया गया है। इस फिल्म की ताकत इस प्रकार रही कि आन्दोलनकारियों ने बाहरी लोगों के प्रवेश पर निषेध के लिए बैरिकेटिंग एवं घंटा बजाकर विरोध किया और इसका प्रभाव झारखण्ड में चल रहे कोयल-कारो का बांध विरोधी आन्दोलन में जनता कर्फ्यू के दौरान बैरकेटिंग लगाकर नगाड़ा बजाया जाता था। बाक्साइट खनन के खिलाफ आन्दोलन एवं नेतरहाट के पठारी क्षेत्र में नेतरहाट फिल्ड फायरिंग रेंज के खिलाफ चल रहे आंदोलन में भी ऐसा ही किया जाता है। इन आंदोलनों के नगाड़ों की आवाज इतना जोर से निकला कि सरकार को पीछे हटना पड़ा।
एक बात तो तय है कि जब से दुनिया बनी है, तब से वर्ग विभाजन के साथ-साथ वर्ग संघर्ष चलता आ रहा है। आदिवासी-दलित रेिज्म के शिकार है, भेद-भाव के शिकार हैं। हमारे बीच महादेव दा की एक कविता याद आती है- ’हमे रचने होंगे ग्रंथ, तो वो दो- चार पंत्तियां मैं सुनाना चाहूंगा-
इतिहास तुम्हारा,
इतिहास के पन्नों पर गढ़ा नहीं शब्दों में,
ना ही दर्ज हो सकता है ग्रंथों में।
तुम्हारी विजय गाथाओं और संघर्षों के गवाह
पेड़ हैं, नदियां है, चट्टानें हैं,
पुरखों की आत्माएं हैं, ससनदिरी है, जाहेरथान हैं
तुम्हारे लोकगीत हैं,
पर इन सबकी गवाही उन्हें नहीं है स्वीकार
इसलिए तुम इतिहास के ग्रंथों में हाशिये पर डाल दिये गये हो
या कर दिये गये हो उससे बाहर
उससे पहले कि वे पुनः तुम्हारा अपने ग्रंथों में
बांनर, भालू या अन्य किसी जानवर के रूप में करें वर्णन
तुम्हें अपने आदमी होने की खोजनी होगी परिभाषा
उनके सिद्वांतों, स्थापनाओं, मंतव्यों के विरूद्व
उनके बर्बर वैचारिक हमलों के विरूद्व
रचने होंगे ग्रंथ’’।
- पोंडीचेरी में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान बीजू टोप्पो द्वारा दी गई भाषण का अंश
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